बुधवार, 19 अप्रैल 2017

"....और तुम्हारी याद"

आज मैं छत पर अकेले और तुम्हारी याद।
पर तेरे सन्दर्भ में हैं बन्द अब संवाद।।

साथ तेरे बैठ कर वो ख्वाहिशें बुनना ।
गुनगुनाना वो तेरा और मेरा सुनना।।
छुट्टियों की दोपहर फिर शरारत एक नई।
गुदगुदी हँसती हँसाती, होती शामें सुरमई।।
रात में संग लेटकर, फुसफुसाना और हँसना।
नींद आती जब हमें तो साथ लाती मधुर सपना।।

छिन गया पल जो था स्वर्णिम ख्वाहिशें बर्बाद।
आज मैं छत पर अकेले और तुम्हारी याद।।

कुछ सुमन थे कुछ थी कलियाँ पर नहीं थे शूल।
पर न जाने क्या हुआ शायद हुई कुछ भूल।।
हो गयी रातें भयावह दानवी सी दोपहर।
शामें भी सुरमई ना हैं, ढा रही हैं वो कहर।।
अब नहीं कुछ पास मेरे बस हैं कुछ लम्हे उदास।
क्या कहूँ मैं ना हुआ था बिछड़ने का पूर्वाभास।।

किससे कहूँ मैं बात दिल की अब तुम्हारे बाद।
आज मैं छत पर अकेले और तुम्हारी याद।।

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