विधि का ये दारुण वज्रपात।
कैसे हृदय करे बर्दाश्त।
मृत्यु शैय्या पर लेटा था।,
मुस्काते देखा जिसे रात।
नितांत अकेले छोड़ चला।
वो दुनिया से मुँह मोड़ चला।
सातों जन्मों के बन्धन को,
इस जन्म में ही वो तोड़ चला।।
सिन्दूर पुछा, टूटी चूड़ी
विधवा बन बैठी सखि मेरी।
कभी फूट फूट कर रोती थी,
कभी बेसुध होती सखि मेरी।
माँ के रोने से रोती थी,
गोदी में डरी डरी बिटिया!
नादान समझ भी ना पाई
आखिर ऐसा क्या आज हुआ।।
सब किया बनी वो 'सावित्री',
अपने 'सत्यवान' को बचाने को।
पर दया न आई ईश्वर को,
भेजा यमराज लिवाने को।।
सारे व्रत-पूजा की उसने,
हर मंदिर पर की थी फ़रियाद।
पर आज गवाँ सबकुछ अपना ,
नास्तिक बन बैठी बदहवास।।
बीवी और बच्ची की ख़ातिर
उसने देखे कितने सपने।
पर अपना कल ना देख सका,
सपने हो नहीं सके अपने।।
मिलता था तब वो कहता था,
"बीतेगी शाम, सहर होगा।
इस बड़े शहर में छोटा सा
मेरा अपना एक घर होगा"।।
सपनों को मूँदे आँखों में
चिर-निद्रा में ऐसा सोया।
उसकी अंतिम यात्रा में
फूट-फूट कर जग रोया।।
"जो होता है अच्छा होता",
इन बातों से विश्वास उठा।
निष्ठुरता देख नियति की तो
मेरा अंतर्मन काँप उठा।।